मुक्तक : 932 - अनगढ़

उतरता रहा हूँ कि चढ़ता रहा मैं ?
मगर इतना तय है कि बढ़ता रहा मैं ।।
कभी भी किसी बुत को तोड़ा न मैंने ,
हमेशा ही अनगढ़ को गढ़ता रहा मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
मगर इतना तय है कि बढ़ता रहा मैं ।।
कभी भी किसी बुत को तोड़ा न मैंने ,
हमेशा ही अनगढ़ को गढ़ता रहा मैं ।।
-डॉ. हीरालाल प्रजापति