हैराँ हूँ लँगड़े चीतों सी तेज़
चाल लेकर ॥
चलते हैं रोशनी में अंधे मशाल
लेकर ॥
हुशयारों से न जाने करते हैं
कैसे अहमक़ ,
आज़ादियों के चर्चे हाथों में
जाल लेकर ॥
चलते नहीं उधर से तलवार , तीर कुछ भी ,
जाते हैं फिर भी वाँ सब हैराँ हूँ ढाल लेकर !!
हरगिज़ कुआँ न खोदें प्यासों
के वास्ते वो ,
बस क़ब्र खोदने को चलते कुदाल
लेकर ॥
माथे नहीं हैं जिनके उनके लिए
तिलक को ,
कुछ लोग थालियों में घूमें
गुलाल लेकर ॥
कुछ माँगने चला हूँ तो लाज़मी
यही है ,
जाऊँ मैं उनके आगे मँगतों सा
हाल लेकर ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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