*मुक्त-ग़ज़ल : 219 - खा-खा कर ॥
अपनों से बैठे खफ़ा हैं खार
खा-खा कर ॥
घूँट पीते ख़ून का खूंख़्वार
खा-खा कर ॥
बेबसी में जो न खाना था वही
जाँ को ;
हम बचाते पड़ गए बीमार खा-खा
कर ॥
इस क़दर मज़्बूर हैं हम प्यास
से अपनी ;
सच बुझाते हैं इसे अंगार
खा-खा कर ॥
जीतने को और भी अपनी कमर
कसते ;
दुश्मनों से हम क़रारी हार
खा-खा कर ॥
टीन सी उसकी हुई खाल अपने
मालिक से ;
चाबुकों की मार हज़ारों बार
खा-खा कर ॥
क्या हुआ वो चार दिन के चार
भूखे बस ;
उठ गए थाली से लुक़्में चार
खा-खा कर ?
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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