*मुक्त-ग़ज़ल : 206 - लाशों से शर्मिंदा हूँ ॥

लाशों से शर्मिंदा हूँ ॥ मुर्दों सा जो ज़िंदा हूँ ॥ पर औ’ पाँव कटे तो
क्या , ज़ात का एक परिंदा हूँ ॥ बेघर हूँ तो क्या उनके , दिल का तो बाशिंदा हूँ ॥ अँधियारा भागे मुझसे , ऐसा मैं ताबिंदा हूँ ॥ लगता हूँ साहब जैसा , वैसे मैं कारिंदा हूँ ॥ कल मैं उनका माज़ी था , औ’ कल का आइंदा
हूँ ॥ तारीफ़ें सब पीठों पर , मुँह पे करता निंदा हूँ ॥ वैसे हूँ जाँबख़्श मगर , गाह ब गाह दरिंदा हूँ ॥ ( ताबिंदा =चमकने वाला ,कारिंदा = कर्मचारी ,माज़ी = भूतकाल ,आइंदा = भविष्य ,जाँबख़्श = मरने से बचाने वाला ,गाह ब गाह = कभी कभी ) -डॉ. हीरालाल प्रजापति