कई प्रश्न स्वयं के अनुत्तरित – इक यह कि मैं क्यों कवि बन बैठा ? बाहर चहुंदिस वह चकाचौंध । आकाश-तड़ित सी महाकौंध । प्रत्येक उजालों का रागी , जुगनूँ तक पे सब रहे औंध । यद्यपि मैं पुजारी था तम का , क्या सोच के मैं रवि बन बैठा ? नकली से सदा अति घृणा रखी । परछाईं स्वयं की भी न लखी । झूठों से बराबर बैर रहा , कभी भूल न पाप की वस्तु चखी । क्या घटित हुआ कि मैं जीवित ही , कहीं मूर्ति कहीं छवि बन बैठा ? कब धर्म पे था विश्वास मुझे ? कब होम-हवन था रास मुझे ? जप-तप-पूजन लगते थे ढोंग , लगते थे व्यर्थ उपवास मुझे । क्यों यज्ञ में तेरी सफलता के , मैं स्वयं पूर्ण हवि बन बैठा ? -डॉ. हीरालाल प्रजापति