170 : मुक्त-ग़ज़ल - कलाई का कड़ा था वो ॥
नगीने सा मेरे दिल की
अँगूठी
में जड़ा था वो ॥
मेरे माथे की बिंदी था ,
कलाई का कड़ा था वो ॥
ज़माने की निगाहों में
वो
बेशक़ एक टीला था ,
मेरी नज़रों में सच ऊँचे
हिमालय से बड़ा था वो ॥
उसूल अपने भी सारे
तोड़कर
मेरे उसूलों को -
बचाने के लिए सारे
ज़माने
से लड़ा था वो ॥
ज़रा सा मुँह से क्या निकला
कि मुझ पर कौन जाँ देगा ?
हथेली पर लिए जाँ अपनी
झट
आगे बढ़ा था वो ॥
मेरा ग़म भूलने हद तोड़कर
पी-पी के उस दिन सच ,
नहीं सुधबुध भुलाकर बल्कि
जाँ खोकर पड़ा था वो ॥
नहीं पहुँचा वहाँ जब तक
उसी जा एक मुद्दत तक ,
मेरे वादे पे मिलने के
किसी
बुत सा खड़ा था वो ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
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