उजड़े इक गाँव से वो
सद्र-शहर बन बैठा ॥
सद्र-शहर बन बैठा ॥
ढीला अंडा था
परिंदा-ए-ज़बर बन बैठा ॥
परिंदा-ए-ज़बर बन बैठा ॥
बिलकुल उम्मीद नहीं
जिसके थी पनपने की ,
जिसके थी पनपने की ,
देखते-देखते वो
पौधा शजर बन बैठा ॥
पौधा शजर बन बैठा ॥
-डॉ. हीरालाल
प्रजापति
2 comments:
बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
धन्यवाद ! संजय भास्कर जी ! जो आपको मेरा ये 'मुक्तक'पसंद आया................
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