यूँ दर्द से छटपटा रहा हूँ I
मैं ज़िंदगानी घटा रहा हूँ I
चखा ही मैनें कभी न खाया ,
मगर कहें सब चटा रहा हूँ I
मैं सेब होकर भी उस नज़र में ,
हमेशा कददू-भटा रहा हूँ I
सब हो गये बाल-बच्चों वाले ,
मैं अब भी लड़की पटा रहा हूँ I
वो भोर के सुनहरे उजाले ,
मैं साँझ का झुटपुटा रहा हूँ I
वो बनके वेणी सदा रहे हैं ,
मैं साधुओं की जटा रहा हूँ I
सटा सका न जब उनको सीने ,
मैं दिल को उनसे हटा रहा हूँ I
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
2 comments:
वाह... बहुत सुन्दर...
धन्यवाद ! Ghanshyam kumar जी !
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