सबके सपने सच कब होते
?
खाएँ मगर इनमें सब
गोते ॥
जो बेवजह ही हँसते
अक्सर ,
उनमें झरते ग़म के सोते
॥
रटते ‘मत
फँसना ,मत फँसना’
जाल फँसे सब अहमक़ तोते
॥
उनके खेत न फलते केले
,
जो खेतों में बेर हैं
बोते ॥
जिनको ग़म इफ़्रात में
मिलते ,
ऐसे लोग बहुत कम रोते
॥
ख़ुद का बोझ ही कब उठता
है ?
सब अपने अपने ग़म ढोते
॥
मैल ज़मीरों पर तारी
है ,
लेकिन लोग बदन भर धोते
॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
7 comments:
सुन्दर प्रस्तुति ....!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (05-10-2013) को "माता का आशीष" (चर्चा मंच-1389) पर भी होगी!
शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद ! रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी !
बहुत सुन्दर .
नई पोस्ट : नई अंतर्दृष्टि : मंजूषा कला
बहुत बहुत धन्यवाद ! राजीव कुमार झा जी !
मैल जमीरों पर तारी है
फिर भी लोग बदन भर धोते।
सही कहा।
धन्यवाद ! आशा जोगळेकर जी !
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