100 : मुक्त-ग़ज़ल - जितना भी कमाते.............
जितना भी कमाते हैं
सब क़र्ज़ चुकाने को ॥
रक्खे हैं ख़ुद को ज़िंदा
बस फ़र्ज़ निभाने को ॥
हम जानते हैं पीना
इक हद तलक सही है ,
इस क़दर पी रहे हैं
जिगर अपना जलाने को ॥
न जाने कैसा फूँका
कि और भड़क उट्ठी ,
वैसे वो सचमुच आए थे
आग बुझाने को ॥
मत मान बुरा इसका जो
मैं दिल नहीं दिखाता ,
अपनों से भी होते हैं
कुछ राज़ छिपाने को ॥
उसके लिए भी थोड़ा सा
वक़्त छोड़ रखना ,
सारी उमर पड़ी है खाने
को कमाने को ॥
बेदर्द ने इस दिल को
ऐसा मरोड़ा तोड़ा ,
क़ाबिल नहीं बचा अब
फिर और लगाने को ॥
है मुफ़्त में भी शायद
अपनी तो जान महँगी ,
आया न कोई जब हम मरते
थे बचाने को ॥
वो मेरा जानी दुश्मन
इतना है खूबसूरत ,
जी चाहता है उसको दोस्त
अपना बनाने को ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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सादर
सरिता भाटिया