92 : मुक्त-ग़ज़ल - मछलियों केकड़ों..........
मछलियों केकड़ों कछुओं
का काल लगता है ॥
मुझको चारा नहीं वो शख़्स
जाल लगता है ॥
घाघ है दुष्ट है शैतान
से न कुछ कम पर ,
शक्ल-ओ-सूरत से नौजवाँ
वो बाल लगता है ॥
ध्यान करता है जब भी मुझको
कोई साधु नहीं ,
वो कभी बगुला कभी इक विडाल
लगता है ॥
तुम तो आए हो हथेली पे
जमाने सरसों ,
पल में कैसे करें की जिसमें
साल लगता है ॥
जो लुटाने रहे आमादा प्यार
भी अपना ,
वतन पे बस वही माई का
लाल लगता है ॥
कौन है जिसने कभी उम्र
भर गुनह न किया ,
मुझको इकदम ये फ़ालतू सवाल
लगता है ॥
वक़्त पड़ने पे गाय ने भी
खदेड़े हैं शेर ,
यों ये सुनने में अजीब
और कमाल लगता है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति
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