इतनी आबादी न थी तब
आदमी था क़ीमती ॥
अब तो बकरे से भी सस्ती
आदमी की ज़िंदगी ॥
पालना मुश्किल है इक
औलाद का महँगाई में ,
फ़िर भी बच्चों पर भी
बच्चे जन रहा है आदमी ॥
इक तरफ़ पंखे भी कूलर
भी तबेले में लगे ,
और घर में फुंक रहा
है गर्मियों में आदमी ॥
जैसे बस हो इक अनार
और सैकड़ों बीमार हों ,
आजकल इक चीज़ ऐसी हो
गई है नौकरी ॥
पहले महमाँ देखकर कहते
थे घर आया ख़ुदा ,
अब तो मेहमानों से
नफ़रत आदमी को हो रही ॥
यूँ तो हैं पहचान के
कई सैकड़ों इस शहर में ,
पर मुझे अपना नहीं
सचमुच लगा एकाध भी ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति