सफ़ेदी को कौओं में तू ढूँढता
है ॥
तू पागल नहीं है तो फ़िर और
क्या है ?
कि तूफ़ान हैं आंधियाँ हैं
लचक जा ,
यों क्यों टूट जाने उखड़ने
खड़ा है ?
यों पथराई आँखों में क्या
झाँकता है ,
वही ख़्वाब तब भी था अब भी
बसा है ॥
ये सब ऐशोआराम का साज़ोसामाँ
,
तुझे खो के लगता है बेकार
का है ॥
तू फ़िर ज़ोर कितना ही अपना
लगा ले ,
न नज़रों में गिर कर कोई उठ
सका है ॥
कि करना ही होगा इलाज अब
तो ‘हीरा’
जो अब सर से पानी गुजरने
लगा है ॥
-डॉ. हीरालाल प्रजापति